Tuesday, September 9, 2008

रस क्या है

भारतीय काव्यशास्त्र में रस की धारणा को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है. संसार का कोई भी ऐसा काव्य सिद्धांत नहीं है जो किसी-न-किसी रूप में काव्य के आनंद को स्वीकार न करता हो. काव्य पढ़ने या नाटक देखने से जो विशेष प्रकार का आनंद प्राप्त होता है उसे रस कहा गया है. काव्य का रस साधारण जीवन में प्राप्त होने वाले आनंद से भिन्न माना गया है, लेकिन वह इतना भिन्न नहीं होता कि जीवन से कटी हुई कोई बिल्कुल निराली चीज़ हो. जीवन और काव्य के अनुभव और आनंद की भिन्नता को समझ लेना चाहिए.
काव्य की अनुभूति और आनंद व्यक्तिगत संकीर्णता से मुक्त होता है. इसी अर्थ में वह भिन्न होता है. उदाहरण के लिए यदि हमें या हमारे किसी संबंधी को सुख-दुख होता है तो हम सुखी-दुखी होते है।. लेकिन जब हम मनुष्य मात्र के सुख-दुख से सुखी-दुखी होते हैं तब वह अनुभव व्यक्तिगत संकीर्णता से मुक्त होता है. ऐसे अनुभव और इस संकीर्णता से मुक्त अनुभव को पं. रामचंद्र शुक्ल ने हृदय की मुक्तावस्था कहा है. हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा है. इसे प्राप्त करने की साधना भावयोग है. जिस प्रकार योग से चित्त का संस्कार होता है उसी प्रकार काव्य से भाव का. इस भावयोग में स्थायी भाव के साथ विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का योग होता है. संस्कृत काव्य-शास्त्र में इसी को रस कहा गया है. इस प्रक्रिया के कारण जीवन की व्यक्तिगत अनुभव और आनंद मनुष्य मात्र का अनुभव और आनंद बन जाता है. इससे स्पष्ट हुआ कि काव्य का अनुभव और आनंद जीवन के अनुभव और आनंद से मूलत: भिन्न नहीं है. काव्य की विशेष प्रक्रिया के कारण उसमें कुछ भिन्नता आ जाती है.

2 comments:

Kavita Vachaknavee said...

चिट्ठे का स्वागत है. लेखन के लिए शुभकामनाएँ. खूब लिखें, अच्छा लिखें.

Unknown said...

आभार आपका

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