Wednesday, September 10, 2008

मध्यकालीनता की अवधारणा

जब हम आदि-अंत-मध्य कहते हैं तो यहाँ मध्य स्थितिबोधक है. जब हम प्राचीन, मध्यकालीन, अधुनातन अथवा आधुनिक कहते हैं तो यहाँ मध्यकालीन, काल की स्थिति का वाचक होता है. लेकिन प्राचीनता, मध्यकालीनता और आधुनिकता जैसे शब्दों के बीच मध्यकालीनता भाववादी संज्ञा के रूप में आता है, जो एक निश्चित कालवाची स्थिति से उभर कर आनेवाली विशेष प्रकार की प्रवृत्ति का द्योतक होता है. यहीं से मध्यकालीनता शब्द का प्रयोग एक अवधारणा की तरह होता है.
मध्यकालीनता एक विशेष प्रकार की मानसिकता का सूचक है जो किसी भी देश-काल में मध्यकालीनता की कही जाएगी. इसे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी 'जबदी हुई स्तब्ध मनोवृत्ति' के रूप में व्याख्यायित करते हैं. स्तब्ध या कुंठित मनोवृत्ति को वे 'सचेत परिवर्तनेच्छा' का अभाव मानते हैं. सचेत परिवर्तनेच्छा अर्थात् असुंदर या अशोभन परिस्थितियों को सुंदर-शोभन में परिवर्तित कर देने की इच्छा. दूसरे शब्दों में कहें तो हर वह विचार अथवा विचारधारा जो मनुष्य की सचेत परिवर्तनेच्छा की भावना को कुंठित करता है, मध्यकालीनता है. चाहे वह नियतिवाद हो या भाग्यवाद, दोनों ही मध्यकालीन-बोध की उपज है.
भारतीय मध्यकाल में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' अथवा 'कर्म प्रधान विस्व करि राखा' जैसे जुमले प्रचलन में तो थे लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत थी, मध्यकालीनता इसी से संबंधित है. किसी व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक उत्थान के मूल में उस पर की गई कृपा होती थी. सब कुछ स्वामी के कृपा पर निर्भर था. कर्म पर कुछ भी नहीं. महत्त्व मात्र कृपा या प्रसाद का था, पुरूषार्थ का नहीं. इससे परवशता की प्रबल भावना का जन्म लेना अवश्यम्भावी था. कोई भी व्यक्ति अपने लाभ-हानि का कोई बुद्धिसंगत कारण नहीं ढ़ूँढता था. पुरोहित पुनर्जन्म की कल्पना का प्रचार करते थे, जिसके अनुसार इस जन्म में मनुष्य जो कष्ट उठाता है वह उसके पूर्व जन्मों का फल होता है. पुनर्जन्म की कल्पना जातक कथाओं में भी है. किन्तु सामंती दौर में इस कल्पना का प्रचार अविश्रांत रूप से किया जाता रहा. धर्म कथाओं द्वारा इस कल्पना को किसानों के मानस में प्रतिष्ठित किया गया, और पुरोहित तथा महत्तर लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका प्रचार-प्रसार करते रहे. किसानों और भूस्वामियों को अगले जन्म में नरक भोगने का भय दिखाया जाता था. सामान्य जीवन के छोटे-बड़े लगभग सभी कार्य कर्मकांडी धर्म के इस भय से ही संचालित होता था. इस स्थिति को प्रो. रामशरण शर्मा 'सामंती मानसिकता' के रूप में व्याख्यायित करते हैं. वस्तुत: यही मध्यकालीनता है.
एक तरफ आततायी सामंती वर्ग है, जिसकी मर्जी पर कोई अंकुश नहीं, दूसरी ओर जन सामान्य है जिसकी सामाजिक स्थिति के निर्धारण में पुरूषार्थ और कर्म की कोई भूमिका नहीं है. सब कुछ जन्म व वंश से तय होता है. ऐसे में मनुष्य का भाग्य बहुत कुछ उसके जन्म (वंश) से निर्धारित हो जाता है, और अपने जन्म के चुनाव में मनुष्य की कोई भूमिका नहीं होती. दूसरे शब्दों में, मनुष्य अपने भाग्य और परिस्थितियों का निर्माता नहीं होता, बल्कि वह सामाजिक नियमों, प्रथाओं और परिस्थितियों के आगे परवश होता है. यही परवशता नियतिवादी विचार को जन्म देता है. मनुष्य के किए कुछ नहीं हो सकता, सब पूर्व निर्धारित है. जो भाग्य में है वही मिलेगा. आदि जैसी मानसिकता का विकास होता है. इस तरह भविष्य भाग्यवाद के सहारे चलता है. नियति और भाग्य के इस लिखे को बदलने के लिए धर्म और कर्मकांडों का ही एक मात्र सहारा बचता है, क्योंकि ईश्वर चाहे तो क्या नहीं हो सकता! अर्थात् परिवर्तन की चाह तो हो (चूँकि यह मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है) लेकिन परिवर्तन में अपनी कर्त्तृत्व भूमिका को न तय कर पाना बल्कि अपनी परिवर्तनेच्छा को पारलौकिक सत्ता, ईश्वर, भाग्य और कर्मकांडों के हवाले कर देना ही मध्यकालीन-बोध है.
धर्म जो प्रकृति की शक्तियों के सामने मनुष्य की बेबसी से पैदा हुआ था, शास्त्रबद्ध होकर ईश्वर, परलोक, कर्मकांड और भाग्यवाद पर आधारित कुछ बहुत बड़ा तंत्र फैला लेता है. मध्ययुग में मनुष्य की व्यक्तिगत, निजी-नैतिक जीवन का नियमन करने की सीमा रेखा से बाहर निकल समाज व्यवस्था को संचालित करने लगा. पुरोहित धर्म के इस तंत्र का अधिकृत रक्षक बना जिसका घनिष्ठ संबंध सामंत वर्ग से होता था. पुरोहित और सामंत एक दूसरे के अधीन नहीं थे, बल्कि एक-दूसरे के हितों के पोषक थे. सामंतों के हित में पुरोहित वर्ग समाज में यथास्थिति को बनाये रखने के लिए धर्म की ओट लेकर भाग्यवाद, कर्मफलवाद, नियतिवाद आदि के माध्यम से समाज में व्याप्त विषमता, वर्ग-भेद, ऊँच-नीच की पद-सोपानिकता को न्यायोचित ठहराता था. सामंत पुरोहितों के हित धन-भूमि और बल का सहयोग करता था. दूसरे शब्दों में, सामंत, ब्राह्मण और शास्त्र मध्ययुगीन तंत्र है जो मिलकर उस युग के सामाजिक और मानसिक ढाँचा तय करते थे. मध्यकालीनता इसी संस्कृति की वैचारिक अभिव्यक्ति है.
यह विचार पराप्राकृतिक शक्ति में विश्वास करता है. जिसके अनुसार प्रकृति की शक्ति के ऊपर कुछ है तो सबका नियामक है. इसी से जुड़ा रहता है एक अंतिम लक्ष्य, मनुष्य जिसे पाने की आकांक्षा करता है. जिसके लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहता है. इस आधार पर यह विचार वास्तविकता के द्वैत सिद्धांत को स्वीकारता है. जिसमें पदार्थपरक भौतिक सत्ता और आध्यात्मिक जगत् दोनों का सह-अस्तित्व होता है. ये दोनों अलग-अलग होते हैं और इनके सम्पर्क के बिन्दु सीमित होते हैं. दोनों ही वास्तविक हो सकते हैं. जैसे, मनुष्य भौतिक है पर उसकी आत्मा आध्यात्मिक तत्त्व है और दोनों भिन्न हैं. इसी आधार पर भौतिक जीवन का कार्य-व्यापार भले ही नित् परिवर्तनशील हो, पर जीवन का एक आध्यात्मिक अंतिम लक्ष्य निर्धारित हो जाता है.
यह विचार सत्य को 'एब्सोल्यूट' (Absolute) मानता है. जिसके अनुसार सत्य बना बनाया होता है. उसे उत्पन्न नहीं कर सकते, सत्य को सिर्फ खोजा जा सकता है. तात्विकता का महत्त्व इस हद तक होता है कि कोई कथन आत्यंतिक रूप से या तो सत्य होता है या झूठ. सत्य-असत्य की परिभाषा परिस्थितियों के सापेक्ष नहीं तय की जाती है. दूसरे शब्दों में यह परमवाद की स्वीकृति है. इसका मुख्य कारण यह है कि मध्यकालीनता ज्ञान को अपने अंतिम रूप में निरपेक्ष मानता है, व्यावहारिक ज़रूरतों से अलग. अर्थात् ज्ञान का स्रोत मूलत: सैद्धांतिक होता है, व्यावहारिक नहीं. आप्त वाक्य या मनुष्य का दिमाग ज्ञान को स्रोत होता है. इसे भी श्रद्धा से प्राप्त किया जाता है. 'श्रद्धावानं लभते ज्ञानम्'. सम्भवत: इसीलिए कबीर ने गदहे के पीठ पर किताबों के बोझ के रूपक के माध्यम से इस स्थिति पर व्यंग्य किया है.
मध्ययुगीन मानस बड़ी-बड़ी घटनाओं का तटस्थ द्रष्टा होता है. अत: घटनाओं को बदलने में उसकी भूमिका नहीं हो सकती. वह केवल व्याख्या कर सकता है. अकारण नहीं है कि मध्ययुगीन चिंतन टीकाओं के रूप में ही हुआ है. मौलिक चिंतन की परंपरा यहाँ नहीं दिखती है. अज्ञात के प्रति जिज्ञासा का भाव कम होने से नये अनुसंधानों की संभावना खत्म होती गई. ऐसे में मौलिक चिंतन की आधार भूमि कैसे बनती? अत: मध्यकालीन मानस हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में:
“धार्मिक आचारों और स्वत: प्रमाण माने जाने वाले आप्त वाक्यों का अनुयायी होता जाता है. और साधारणत: आप्त समझे जाने वाले ग्रंथों की बाल की खाल निकालने वाली व्याख्याओं पर अपनी समस्त बुद्धि खर्च कर देता है.”
मानसिक और बौद्धिक जड़ता की स्थिति यह होती है कि विचारों को दरकिनार कर रूढ़ियों को ही महत्त्व दिया जाता है. द्विवेदीजी ने इसे 'प्रतीक और रूढ़ि का विवेक खोकर कुंठाग्रस्त' हो जाना कहा. उनके अनुसार:
प्रत्येक शब्द, प्रत्येक मूर्ति, प्रत्येक रेखा और प्रत्येक चिह्न जब तक अपने पीछे के तत्व चिंतन भुला दिये जाते हैं तो वे रूढ हो जाते हैं. विष्णु का गगनाभ नीलवर्ण उनकी अनंतता का संकेत करता है, उनके चारों हाथ और उनके शस्त्र भी अनंत काल और गति के निदर्शक हैं, पर विष्णु की मूर्ति को उनका फोटोग्राफ मान लेना रूढ़ है और स्तब्ध मनोवृत्ति का परिचायक है.

अर्थात् मध्यकालीनता है.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मंतव्यों के आधार पर मध्यकालीनता को निर्मित करने वाले घटकों को पहचाना जा सकता है -
'पतनोन्मुख जबदी हुई मनोवृत्ति'
'कुंठित और स्तब्ध मनोवृत्ति',
'ब्राह्मण धर्मानुमोदित व्यवस्था',
'पुराणों में आस्था'
'भविष्य को अंधकारमय समझने की प्रवृत्ति'
'अतीत को आदर्श मानना'
'अनुकरण प्रधान साहित्य'
'अतिशय अलंकरण प्रियता'.
इसमें संदेह नहीं कि इन्हीं प्रवृत्तियों से मध्यकालीनता की पहचान निश्चित होती है, लेकिन भारतीय इतिहास में अत्यंत संक्षिप्त अवधियों को छोड़कर ऐसी परिस्थितियाँ प्राय: नहीं रही. भारतीय मध्ययुग अंधकार युग नहीं रहा है. स्वयं यूरोपीय विद्वान इसे स्वर्णयुग कहते हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर इसे 'निर्माणात्म्क युग' मानती हैं. डा. रामविलास शर्मा भी 'लोकजागरण' इसी युग में दिखाते हैं. स्वयं हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल से मध्ययुगीनता की इस विशेषता का अंतर्विरोध देखकर ही 'हिन्दी साहित्य' (1952) में से मध्यकाल नाम हटा दिया है.
इसीलिए भारत के संदर्भ में मध्यकालीनता पूरे युग की अभिव्यक्ति नहीं, एक विशिष्ट अनैतिहासिक बोध है जो विभिन्न कारणों से प्राचीन काल में भी थी, मध्यकाल में भी रही और आज भी दिख जाती है. देश-काल के दबाव से मात्रा, प्राधान्य अथवा वर्चस्व के साथ कुछ हदतक स्वरूप में अंतर दिख सकता है. नियतिवाद, भाग्यवाद, तंत्र-मंत्रवाद, भक्ति-धर्म और इनसे जुड़े कर्मकांडों का विकासात्मक अध्ययन किया जाए तो इसे आसानी से सिद्ध किया जा सकता है.
यह भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि नियतिवाद, भाग्यवाद आदि की परवशता-जन्य भाव युग का 'फेनोमेना' भले ही रहा हो लेकिन इसका सबसे अधिक असर सामान्यजनों पर ही पड़ा, शासक वर्ग पर नहीं. 'को नृप होहि हमे का हानी' जैसी बातें मंथरा 'दासी' कहती हैं. दशरथ और कैकयी ये अच्छी तरह जानते थे कि किसके राजा बनने से क्या फ़र्क पड़ता है. धर्मशास्त्रीय नियमों का उल्लंघन जितना शासक वर्ग ने किया है, आम जन के लिए यह असंभव था.
संक्षेप में कहा जाए तो, हर वह विचार व स्थिति मध्यकालीनता है जो मनुष्य के विकास और उसकी स्वतंत्रता को बाधित करता है. यह ईश्वर और धर्म केन्द्रित चिंतन व्यवस्था है जो मनुष्य की सार्थकता मोक्ष प्राप्त करने अथवा ब्रह्म में लीन हो जाने को मानता है. जब साहित्य, कला-संस्कृति, राजनीति का ऐजेंडा और इतिहास की गति का निर्धारण साधु-संन्यासी करें, जब व्यक्ति, समाज और राज्य के क्रिया-कलाप धर्म, धर्मशास्त्र और धर्माधिकारी तय करें, जब जीवन की सारी मूल्यवत्ता और सार्थकता धर्मशास्त्र अनुमोदित समाज व्यवस्था द्वारा निश्चित किए हुए नियमों से निर्धारित होने लगे तो इसे मध्यकालीन स्थिति कहा जाएगा. इसी आधार पर सूत्रित करें तो -
सामंती व्यवस्था, परलोक का विचार, ईश्वर की शक्ति का विश्वास, देववाणी में अभिव्यक्ति को महत्त्व देना, कालचक्र की धारणा मध्यकालीनता है.

अतीत की निरंतरता का बोध मध्यकालीन बोध है.

श्रद्धा मध्यकालीन मूल्य है.

धर्म और कुटुम्ब मध्यकालीन संस्था है.

संतोष मध्यकालीन भाव है.

संस्कार मध्यकालीन जीवन-पद्धति है.

भाग्य मध्यकालीन चेतना है.

अध्यात्म मध्यकालीन आश्रय है और

वर्ण मध्यकालीन संबंध है.

1 comment:

AVANEESH SINGH said...

अद्भुत। बेशक , आपके कहे अनुसार श्रद्धा मध्यकालीन मूल्य है लेकिन लेखक के प्रति इस तराशे हुए काम के लिए मेरे मन में बहुत श्रद्धा उत्पन्न हुई है। धन्यवाद।

Blog Archive