कविता में भाषा की सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है. वस्तु या व्यापार की भावना चटकीली करने और भाव को अधिक उत्कर्ष पर पहुँचाने के लिए कभी –कभी वस्तु का आकार या गुण बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है, कभी उसके रूप रंग या गुण की भावना को उसी प्रकार के रूप रंग मिलाकर तीव्र करने के लिए समान रूप और धर्म वाली और-और वस्तुओं को सामने लाकर रखना पड़ता है. कभी-कभी बात को भी घुमा-फिरा कर कहना पड़ता है. इस तरह के भिन्न-भिन्न विधान और कथन के ढंग, अलंकार कहलाते हैं. कहीं-कहीं तो इनके बिना काम ही नहीं चल सकता. पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ये साधन हैं, साध्य नहीं. साध्य को भुला कर इन्हीं को साध्य मान लेने से कविता का रूप कभी-कभी इतना विकृत हो जाता है कि वह कविता ही नहीं रह जाती. पुरानी कविता में कहीं-कहीं इस बात के उदाहरण मिल जाते हैं.......जैसे शिखर की तरह उठे हुए मेघखण्ड के ऊपर उदित होते हुए चंद्रबिम्ब के संबंध में इस उक्ति से कि, 'मनहुँ क्रमेलकपीठ पै धर्-यो गोल घंटा लसत I' (मानो ऊँट की पीठ पर रखा हुआ घंटा सुशोभित हो रहा हो), दूर की सूझ चाहे प्रगट हो, पर प्रस्तुत सौन्दर्य की भावना की कुछ भी पुष्टि नहीं होती.
जिस प्रकार एक कुरूप स्त्री अलंकार लाद कर सुंदर नहीं हो सकती, उसी प्रकार प्रस्तुत वस्तु या तथ्य की रमणीयता के अभाव में अलंकारों का ढेर काव्य का सजीव स्वरूप नहीं खड़ा कर सकता……पहले से सुंदर अर्थ को ही अलंकार शोभित कर सकता है.
अभिनव गुप्त का कथन है कि
यदि शव को गहने पहना दिए जाएँ, या साधु सोने की छड़ी धारण कर ले तो वह सुंदर नहीं हो सकता. अर्थात् अलंकार सौन्दर्य की वृद्धि करता है, सुंदर की सृष्टि नहीं कर सकता.
अलंकार है क्या! सूक्ष्म दृष्टि वालों ने काव्यों के सुंदर-सुंदर स्थल चुने और उनकी रमणीयता के कारणों की खोज करने लगे. वर्णन शैली या कथन की पद्धति में ऐसे लोगों को जो-जो विशेषताएँ मालूम होती गईं, उनका वे नामकरण करते गए. कौन कह सकता है कि काव्यों में जितने रमणीय स्थल हैं, सब ढूँढ़ डाले गए, वर्णन की जितनी सुंदर प्रणालियाँ हैं सब निरूपित हो गईं.
इस प्रकार अलंकार, वर्णन शैली की विशेषता है.
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