Tuesday, September 9, 2008

रस निष्पत्ति और रसानुभूति का स्वरूप

रस के सभी अवयव जब एक-दूसरे के संबंध में गूँथ जाते हैं तो उस गुँथाव को रस प्रक्रिया कहते हैं. यानी रस तभी उत्पन्न होता है जब ये अवयव विशेष प्रक्रिया में सक्रिय हो उठते हैं. इसी प्रक्रिया को भरत का यह प्रसिद्ध सूत्र व्यक्त करता है:
विभावानुभाव व्यभिचारीसंयोगाद् रस निष्पत्ति:

अर्थात् विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी के संयोग से रस निष्पत्ति होती है.

रस की निष्पत्ति और उसका स्वरूप समझना बहुत कठिन है और उस पर विवाद भी बहुत हुआ है. उन बातों की चर्चा कहीं और की जाएगी. लेकिन रस की अनिर्वचनीयता का कुछ पता हमें अवश्य होना चाहिए. 'विभाव-अनुभाव आदि के योग से जो रस निष्पन्न होता है वह न तो विभाव ही है, न अनुभाव ही है, न संचारी-भाव ही है, न स्थायी भाव ही है, न इन सबका योगफल ही है और न इसके बिना रह ही सकता है. रस इन सब वस्तुओं से भिन्न है और फिर भी इन्हीं से निष्पन्न हुआ है. जो बात इस प्रसंग में विशेष रूप से लक्ष्य करने की है, वह यह है कि रस व्यंग्य होता है, वाच्य नहीं और रस निर्वैयक्तिक होता है.' रस के व्यंग्य होने का तात्पर्य है कि उसका कथन नहीं किया जा सकता, वह लावण्य या कांति की भाँति प्रतीयमान होता है. रस से निर्वैयक्तिक होने का अर्थ है कि वह व्यक्ति की संकीर्ण सीमाओं से परे होता है.

1 comment:

odessadaby said...

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