मध्यकालीनता की अवधारणा
आधुनिकता की अवधारणा
दलित साहित्य की अवधारणा
Wednesday, September 10, 2008
मध्यकालीनता की अवधारणा
जब हम आदि-अंत-मध्य कहते हैं तो यहाँ मध्य स्थितिबोधक है. जब हम प्राचीन, मध्यकालीन, अधुनातन अथवा आधुनिक कहते हैं तो यहाँ मध्यकालीन, काल की स्थिति का वाचक होता है. लेकिन प्राचीनता, मध्यकालीनता और आधुनिकता जैसे शब्दों के बीच मध्यकालीनता भाववादी संज्ञा के रूप में आता है, जो एक निश्चित कालवाची स्थिति से उभर कर आनेवाली विशेष प्रकार की प्रवृत्ति का द्योतक होता है. यहीं से मध्यकालीनता शब्द का प्रयोग एक अवधारणा की तरह होता है.
मध्यकालीनता एक विशेष प्रकार की मानसिकता का सूचक है जो किसी भी देश-काल में मध्यकालीनता की कही जाएगी. इसे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी 'जबदी हुई स्तब्ध मनोवृत्ति' के रूप में व्याख्यायित करते हैं. स्तब्ध या कुंठित मनोवृत्ति को वे 'सचेत परिवर्तनेच्छा' का अभाव मानते हैं. सचेत परिवर्तनेच्छा अर्थात् असुंदर या अशोभन परिस्थितियों को सुंदर-शोभन में परिवर्तित कर देने की इच्छा. दूसरे शब्दों में कहें तो हर वह विचार अथवा विचारधारा जो मनुष्य की सचेत परिवर्तनेच्छा की भावना को कुंठित करता है, मध्यकालीनता है. चाहे वह नियतिवाद हो या भाग्यवाद, दोनों ही मध्यकालीन-बोध की उपज है.
भारतीय मध्यकाल में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' अथवा 'कर्म प्रधान विस्व करि राखा' जैसे जुमले प्रचलन में तो थे लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत थी, मध्यकालीनता इसी से संबंधित है. किसी व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक उत्थान के मूल में उस पर की गई कृपा होती थी. सब कुछ स्वामी के कृपा पर निर्भर था. कर्म पर कुछ भी नहीं. महत्त्व मात्र कृपा या प्रसाद का था, पुरूषार्थ का नहीं. इससे परवशता की प्रबल भावना का जन्म लेना अवश्यम्भावी था. कोई भी व्यक्ति अपने लाभ-हानि का कोई बुद्धिसंगत कारण नहीं ढ़ूँढता था. पुरोहित पुनर्जन्म की कल्पना का प्रचार करते थे, जिसके अनुसार इस जन्म में मनुष्य जो कष्ट उठाता है वह उसके पूर्व जन्मों का फल होता है. पुनर्जन्म की कल्पना जातक कथाओं में भी है. किन्तु सामंती दौर में इस कल्पना का प्रचार अविश्रांत रूप से किया जाता रहा. धर्म कथाओं द्वारा इस कल्पना को किसानों के मानस में प्रतिष्ठित किया गया, और पुरोहित तथा महत्तर लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका प्रचार-प्रसार करते रहे. किसानों और भूस्वामियों को अगले जन्म में नरक भोगने का भय दिखाया जाता था. सामान्य जीवन के छोटे-बड़े लगभग सभी कार्य कर्मकांडी धर्म के इस भय से ही संचालित होता था. इस स्थिति को प्रो. रामशरण शर्मा 'सामंती मानसिकता' के रूप में व्याख्यायित करते हैं. वस्तुत: यही मध्यकालीनता है.
एक तरफ आततायी सामंती वर्ग है, जिसकी मर्जी पर कोई अंकुश नहीं, दूसरी ओर जन सामान्य है जिसकी सामाजिक स्थिति के निर्धारण में पुरूषार्थ और कर्म की कोई भूमिका नहीं है. सब कुछ जन्म व वंश से तय होता है. ऐसे में मनुष्य का भाग्य बहुत कुछ उसके जन्म (वंश) से निर्धारित हो जाता है, और अपने जन्म के चुनाव में मनुष्य की कोई भूमिका नहीं होती. दूसरे शब्दों में, मनुष्य अपने भाग्य और परिस्थितियों का निर्माता नहीं होता, बल्कि वह सामाजिक नियमों, प्रथाओं और परिस्थितियों के आगे परवश होता है. यही परवशता नियतिवादी विचार को जन्म देता है. मनुष्य के किए कुछ नहीं हो सकता, सब पूर्व निर्धारित है. जो भाग्य में है वही मिलेगा. आदि जैसी मानसिकता का विकास होता है. इस तरह भविष्य भाग्यवाद के सहारे चलता है. नियति और भाग्य के इस लिखे को बदलने के लिए धर्म और कर्मकांडों का ही एक मात्र सहारा बचता है, क्योंकि ईश्वर चाहे तो क्या नहीं हो सकता! अर्थात् परिवर्तन की चाह तो हो (चूँकि यह मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है) लेकिन परिवर्तन में अपनी कर्त्तृत्व भूमिका को न तय कर पाना बल्कि अपनी परिवर्तनेच्छा को पारलौकिक सत्ता, ईश्वर, भाग्य और कर्मकांडों के हवाले कर देना ही मध्यकालीन-बोध है.
धर्म जो प्रकृति की शक्तियों के सामने मनुष्य की बेबसी से पैदा हुआ था, शास्त्रबद्ध होकर ईश्वर, परलोक, कर्मकांड और भाग्यवाद पर आधारित कुछ बहुत बड़ा तंत्र फैला लेता है. मध्ययुग में मनुष्य की व्यक्तिगत, निजी-नैतिक जीवन का नियमन करने की सीमा रेखा से बाहर निकल समाज व्यवस्था को संचालित करने लगा. पुरोहित धर्म के इस तंत्र का अधिकृत रक्षक बना जिसका घनिष्ठ संबंध सामंत वर्ग से होता था. पुरोहित और सामंत एक दूसरे के अधीन नहीं थे, बल्कि एक-दूसरे के हितों के पोषक थे. सामंतों के हित में पुरोहित वर्ग समाज में यथास्थिति को बनाये रखने के लिए धर्म की ओट लेकर भाग्यवाद, कर्मफलवाद, नियतिवाद आदि के माध्यम से समाज में व्याप्त विषमता, वर्ग-भेद, ऊँच-नीच की पद-सोपानिकता को न्यायोचित ठहराता था. सामंत पुरोहितों के हित धन-भूमि और बल का सहयोग करता था. दूसरे शब्दों में, सामंत, ब्राह्मण और शास्त्र मध्ययुगीन तंत्र है जो मिलकर उस युग के सामाजिक और मानसिक ढाँचा तय करते थे. मध्यकालीनता इसी संस्कृति की वैचारिक अभिव्यक्ति है.
यह विचार पराप्राकृतिक शक्ति में विश्वास करता है. जिसके अनुसार प्रकृति की शक्ति के ऊपर कुछ है तो सबका नियामक है. इसी से जुड़ा रहता है एक अंतिम लक्ष्य, मनुष्य जिसे पाने की आकांक्षा करता है. जिसके लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहता है. इस आधार पर यह विचार वास्तविकता के द्वैत सिद्धांत को स्वीकारता है. जिसमें पदार्थपरक भौतिक सत्ता और आध्यात्मिक जगत् दोनों का सह-अस्तित्व होता है. ये दोनों अलग-अलग होते हैं और इनके सम्पर्क के बिन्दु सीमित होते हैं. दोनों ही वास्तविक हो सकते हैं. जैसे, मनुष्य भौतिक है पर उसकी आत्मा आध्यात्मिक तत्त्व है और दोनों भिन्न हैं. इसी आधार पर भौतिक जीवन का कार्य-व्यापार भले ही नित् परिवर्तनशील हो, पर जीवन का एक आध्यात्मिक अंतिम लक्ष्य निर्धारित हो जाता है.
यह विचार सत्य को 'एब्सोल्यूट' (Absolute) मानता है. जिसके अनुसार सत्य बना बनाया होता है. उसे उत्पन्न नहीं कर सकते, सत्य को सिर्फ खोजा जा सकता है. तात्विकता का महत्त्व इस हद तक होता है कि कोई कथन आत्यंतिक रूप से या तो सत्य होता है या झूठ. सत्य-असत्य की परिभाषा परिस्थितियों के सापेक्ष नहीं तय की जाती है. दूसरे शब्दों में यह परमवाद की स्वीकृति है. इसका मुख्य कारण यह है कि मध्यकालीनता ज्ञान को अपने अंतिम रूप में निरपेक्ष मानता है, व्यावहारिक ज़रूरतों से अलग. अर्थात् ज्ञान का स्रोत मूलत: सैद्धांतिक होता है, व्यावहारिक नहीं. आप्त वाक्य या मनुष्य का दिमाग ज्ञान को स्रोत होता है. इसे भी श्रद्धा से प्राप्त किया जाता है. 'श्रद्धावानं लभते ज्ञानम्'. सम्भवत: इसीलिए कबीर ने गदहे के पीठ पर किताबों के बोझ के रूपक के माध्यम से इस स्थिति पर व्यंग्य किया है.
मध्ययुगीन मानस बड़ी-बड़ी घटनाओं का तटस्थ द्रष्टा होता है. अत: घटनाओं को बदलने में उसकी भूमिका नहीं हो सकती. वह केवल व्याख्या कर सकता है. अकारण नहीं है कि मध्ययुगीन चिंतन टीकाओं के रूप में ही हुआ है. मौलिक चिंतन की परंपरा यहाँ नहीं दिखती है. अज्ञात के प्रति जिज्ञासा का भाव कम होने से नये अनुसंधानों की संभावना खत्म होती गई. ऐसे में मौलिक चिंतन की आधार भूमि कैसे बनती? अत: मध्यकालीन मानस हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में:
“धार्मिक आचारों और स्वत: प्रमाण माने जाने वाले आप्त वाक्यों का अनुयायी होता जाता है. और साधारणत: आप्त समझे जाने वाले ग्रंथों की बाल की खाल निकालने वाली व्याख्याओं पर अपनी समस्त बुद्धि खर्च कर देता है.”
मानसिक और बौद्धिक जड़ता की स्थिति यह होती है कि विचारों को दरकिनार कर रूढ़ियों को ही महत्त्व दिया जाता है. द्विवेदीजी ने इसे 'प्रतीक और रूढ़ि का विवेक खोकर कुंठाग्रस्त' हो जाना कहा. उनके अनुसार:
अर्थात् मध्यकालीनता है.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मंतव्यों के आधार पर मध्यकालीनता को निर्मित करने वाले घटकों को पहचाना जा सकता है -
इसीलिए भारत के संदर्भ में मध्यकालीनता पूरे युग की अभिव्यक्ति नहीं, एक विशिष्ट अनैतिहासिक बोध है जो विभिन्न कारणों से प्राचीन काल में भी थी, मध्यकाल में भी रही और आज भी दिख जाती है. देश-काल के दबाव से मात्रा, प्राधान्य अथवा वर्चस्व के साथ कुछ हदतक स्वरूप में अंतर दिख सकता है. नियतिवाद, भाग्यवाद, तंत्र-मंत्रवाद, भक्ति-धर्म और इनसे जुड़े कर्मकांडों का विकासात्मक अध्ययन किया जाए तो इसे आसानी से सिद्ध किया जा सकता है.
यह भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि नियतिवाद, भाग्यवाद आदि की परवशता-जन्य भाव युग का 'फेनोमेना' भले ही रहा हो लेकिन इसका सबसे अधिक असर सामान्यजनों पर ही पड़ा, शासक वर्ग पर नहीं. 'को नृप होहि हमे का हानी' जैसी बातें मंथरा 'दासी' कहती हैं. दशरथ और कैकयी ये अच्छी तरह जानते थे कि किसके राजा बनने से क्या फ़र्क पड़ता है. धर्मशास्त्रीय नियमों का उल्लंघन जितना शासक वर्ग ने किया है, आम जन के लिए यह असंभव था.
संक्षेप में कहा जाए तो, हर वह विचार व स्थिति मध्यकालीनता है जो मनुष्य के विकास और उसकी स्वतंत्रता को बाधित करता है. यह ईश्वर और धर्म केन्द्रित चिंतन व्यवस्था है जो मनुष्य की सार्थकता मोक्ष प्राप्त करने अथवा ब्रह्म में लीन हो जाने को मानता है. जब साहित्य, कला-संस्कृति, राजनीति का ऐजेंडा और इतिहास की गति का निर्धारण साधु-संन्यासी करें, जब व्यक्ति, समाज और राज्य के क्रिया-कलाप धर्म, धर्मशास्त्र और धर्माधिकारी तय करें, जब जीवन की सारी मूल्यवत्ता और सार्थकता धर्मशास्त्र अनुमोदित समाज व्यवस्था द्वारा निश्चित किए हुए नियमों से निर्धारित होने लगे तो इसे मध्यकालीन स्थिति कहा जाएगा. इसी आधार पर सूत्रित करें तो -
सामंती व्यवस्था, परलोक का विचार, ईश्वर की शक्ति का विश्वास, देववाणी में अभिव्यक्ति को महत्त्व देना, कालचक्र की धारणा मध्यकालीनता है.
अतीत की निरंतरता का बोध मध्यकालीन बोध है.
श्रद्धा मध्यकालीन मूल्य है.
धर्म और कुटुम्ब मध्यकालीन संस्था है.
संतोष मध्यकालीन भाव है.
संस्कार मध्यकालीन जीवन-पद्धति है.
भाग्य मध्यकालीन चेतना है.
अध्यात्म मध्यकालीन आश्रय है और
वर्ण मध्यकालीन संबंध है.
मध्यकालीनता एक विशेष प्रकार की मानसिकता का सूचक है जो किसी भी देश-काल में मध्यकालीनता की कही जाएगी. इसे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी 'जबदी हुई स्तब्ध मनोवृत्ति' के रूप में व्याख्यायित करते हैं. स्तब्ध या कुंठित मनोवृत्ति को वे 'सचेत परिवर्तनेच्छा' का अभाव मानते हैं. सचेत परिवर्तनेच्छा अर्थात् असुंदर या अशोभन परिस्थितियों को सुंदर-शोभन में परिवर्तित कर देने की इच्छा. दूसरे शब्दों में कहें तो हर वह विचार अथवा विचारधारा जो मनुष्य की सचेत परिवर्तनेच्छा की भावना को कुंठित करता है, मध्यकालीनता है. चाहे वह नियतिवाद हो या भाग्यवाद, दोनों ही मध्यकालीन-बोध की उपज है.
भारतीय मध्यकाल में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' अथवा 'कर्म प्रधान विस्व करि राखा' जैसे जुमले प्रचलन में तो थे लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत थी, मध्यकालीनता इसी से संबंधित है. किसी व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक उत्थान के मूल में उस पर की गई कृपा होती थी. सब कुछ स्वामी के कृपा पर निर्भर था. कर्म पर कुछ भी नहीं. महत्त्व मात्र कृपा या प्रसाद का था, पुरूषार्थ का नहीं. इससे परवशता की प्रबल भावना का जन्म लेना अवश्यम्भावी था. कोई भी व्यक्ति अपने लाभ-हानि का कोई बुद्धिसंगत कारण नहीं ढ़ूँढता था. पुरोहित पुनर्जन्म की कल्पना का प्रचार करते थे, जिसके अनुसार इस जन्म में मनुष्य जो कष्ट उठाता है वह उसके पूर्व जन्मों का फल होता है. पुनर्जन्म की कल्पना जातक कथाओं में भी है. किन्तु सामंती दौर में इस कल्पना का प्रचार अविश्रांत रूप से किया जाता रहा. धर्म कथाओं द्वारा इस कल्पना को किसानों के मानस में प्रतिष्ठित किया गया, और पुरोहित तथा महत्तर लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका प्रचार-प्रसार करते रहे. किसानों और भूस्वामियों को अगले जन्म में नरक भोगने का भय दिखाया जाता था. सामान्य जीवन के छोटे-बड़े लगभग सभी कार्य कर्मकांडी धर्म के इस भय से ही संचालित होता था. इस स्थिति को प्रो. रामशरण शर्मा 'सामंती मानसिकता' के रूप में व्याख्यायित करते हैं. वस्तुत: यही मध्यकालीनता है.
एक तरफ आततायी सामंती वर्ग है, जिसकी मर्जी पर कोई अंकुश नहीं, दूसरी ओर जन सामान्य है जिसकी सामाजिक स्थिति के निर्धारण में पुरूषार्थ और कर्म की कोई भूमिका नहीं है. सब कुछ जन्म व वंश से तय होता है. ऐसे में मनुष्य का भाग्य बहुत कुछ उसके जन्म (वंश) से निर्धारित हो जाता है, और अपने जन्म के चुनाव में मनुष्य की कोई भूमिका नहीं होती. दूसरे शब्दों में, मनुष्य अपने भाग्य और परिस्थितियों का निर्माता नहीं होता, बल्कि वह सामाजिक नियमों, प्रथाओं और परिस्थितियों के आगे परवश होता है. यही परवशता नियतिवादी विचार को जन्म देता है. मनुष्य के किए कुछ नहीं हो सकता, सब पूर्व निर्धारित है. जो भाग्य में है वही मिलेगा. आदि जैसी मानसिकता का विकास होता है. इस तरह भविष्य भाग्यवाद के सहारे चलता है. नियति और भाग्य के इस लिखे को बदलने के लिए धर्म और कर्मकांडों का ही एक मात्र सहारा बचता है, क्योंकि ईश्वर चाहे तो क्या नहीं हो सकता! अर्थात् परिवर्तन की चाह तो हो (चूँकि यह मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है) लेकिन परिवर्तन में अपनी कर्त्तृत्व भूमिका को न तय कर पाना बल्कि अपनी परिवर्तनेच्छा को पारलौकिक सत्ता, ईश्वर, भाग्य और कर्मकांडों के हवाले कर देना ही मध्यकालीन-बोध है.
धर्म जो प्रकृति की शक्तियों के सामने मनुष्य की बेबसी से पैदा हुआ था, शास्त्रबद्ध होकर ईश्वर, परलोक, कर्मकांड और भाग्यवाद पर आधारित कुछ बहुत बड़ा तंत्र फैला लेता है. मध्ययुग में मनुष्य की व्यक्तिगत, निजी-नैतिक जीवन का नियमन करने की सीमा रेखा से बाहर निकल समाज व्यवस्था को संचालित करने लगा. पुरोहित धर्म के इस तंत्र का अधिकृत रक्षक बना जिसका घनिष्ठ संबंध सामंत वर्ग से होता था. पुरोहित और सामंत एक दूसरे के अधीन नहीं थे, बल्कि एक-दूसरे के हितों के पोषक थे. सामंतों के हित में पुरोहित वर्ग समाज में यथास्थिति को बनाये रखने के लिए धर्म की ओट लेकर भाग्यवाद, कर्मफलवाद, नियतिवाद आदि के माध्यम से समाज में व्याप्त विषमता, वर्ग-भेद, ऊँच-नीच की पद-सोपानिकता को न्यायोचित ठहराता था. सामंत पुरोहितों के हित धन-भूमि और बल का सहयोग करता था. दूसरे शब्दों में, सामंत, ब्राह्मण और शास्त्र मध्ययुगीन तंत्र है जो मिलकर उस युग के सामाजिक और मानसिक ढाँचा तय करते थे. मध्यकालीनता इसी संस्कृति की वैचारिक अभिव्यक्ति है.
यह विचार पराप्राकृतिक शक्ति में विश्वास करता है. जिसके अनुसार प्रकृति की शक्ति के ऊपर कुछ है तो सबका नियामक है. इसी से जुड़ा रहता है एक अंतिम लक्ष्य, मनुष्य जिसे पाने की आकांक्षा करता है. जिसके लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहता है. इस आधार पर यह विचार वास्तविकता के द्वैत सिद्धांत को स्वीकारता है. जिसमें पदार्थपरक भौतिक सत्ता और आध्यात्मिक जगत् दोनों का सह-अस्तित्व होता है. ये दोनों अलग-अलग होते हैं और इनके सम्पर्क के बिन्दु सीमित होते हैं. दोनों ही वास्तविक हो सकते हैं. जैसे, मनुष्य भौतिक है पर उसकी आत्मा आध्यात्मिक तत्त्व है और दोनों भिन्न हैं. इसी आधार पर भौतिक जीवन का कार्य-व्यापार भले ही नित् परिवर्तनशील हो, पर जीवन का एक आध्यात्मिक अंतिम लक्ष्य निर्धारित हो जाता है.
यह विचार सत्य को 'एब्सोल्यूट' (Absolute) मानता है. जिसके अनुसार सत्य बना बनाया होता है. उसे उत्पन्न नहीं कर सकते, सत्य को सिर्फ खोजा जा सकता है. तात्विकता का महत्त्व इस हद तक होता है कि कोई कथन आत्यंतिक रूप से या तो सत्य होता है या झूठ. सत्य-असत्य की परिभाषा परिस्थितियों के सापेक्ष नहीं तय की जाती है. दूसरे शब्दों में यह परमवाद की स्वीकृति है. इसका मुख्य कारण यह है कि मध्यकालीनता ज्ञान को अपने अंतिम रूप में निरपेक्ष मानता है, व्यावहारिक ज़रूरतों से अलग. अर्थात् ज्ञान का स्रोत मूलत: सैद्धांतिक होता है, व्यावहारिक नहीं. आप्त वाक्य या मनुष्य का दिमाग ज्ञान को स्रोत होता है. इसे भी श्रद्धा से प्राप्त किया जाता है. 'श्रद्धावानं लभते ज्ञानम्'. सम्भवत: इसीलिए कबीर ने गदहे के पीठ पर किताबों के बोझ के रूपक के माध्यम से इस स्थिति पर व्यंग्य किया है.
मध्ययुगीन मानस बड़ी-बड़ी घटनाओं का तटस्थ द्रष्टा होता है. अत: घटनाओं को बदलने में उसकी भूमिका नहीं हो सकती. वह केवल व्याख्या कर सकता है. अकारण नहीं है कि मध्ययुगीन चिंतन टीकाओं के रूप में ही हुआ है. मौलिक चिंतन की परंपरा यहाँ नहीं दिखती है. अज्ञात के प्रति जिज्ञासा का भाव कम होने से नये अनुसंधानों की संभावना खत्म होती गई. ऐसे में मौलिक चिंतन की आधार भूमि कैसे बनती? अत: मध्यकालीन मानस हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में:
“धार्मिक आचारों और स्वत: प्रमाण माने जाने वाले आप्त वाक्यों का अनुयायी होता जाता है. और साधारणत: आप्त समझे जाने वाले ग्रंथों की बाल की खाल निकालने वाली व्याख्याओं पर अपनी समस्त बुद्धि खर्च कर देता है.”
मानसिक और बौद्धिक जड़ता की स्थिति यह होती है कि विचारों को दरकिनार कर रूढ़ियों को ही महत्त्व दिया जाता है. द्विवेदीजी ने इसे 'प्रतीक और रूढ़ि का विवेक खोकर कुंठाग्रस्त' हो जाना कहा. उनके अनुसार:
प्रत्येक शब्द, प्रत्येक मूर्ति, प्रत्येक रेखा और प्रत्येक चिह्न जब तक अपने पीछे के तत्व चिंतन भुला दिये जाते हैं तो वे रूढ हो जाते हैं. विष्णु का गगनाभ नीलवर्ण उनकी अनंतता का संकेत करता है, उनके चारों हाथ और उनके शस्त्र भी अनंत काल और गति के निदर्शक हैं, पर विष्णु की मूर्ति को उनका फोटोग्राफ मान लेना रूढ़ है और स्तब्ध मनोवृत्ति का परिचायक है.
अर्थात् मध्यकालीनता है.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मंतव्यों के आधार पर मध्यकालीनता को निर्मित करने वाले घटकों को पहचाना जा सकता है -
'पतनोन्मुख जबदी हुई मनोवृत्ति'इसमें संदेह नहीं कि इन्हीं प्रवृत्तियों से मध्यकालीनता की पहचान निश्चित होती है, लेकिन भारतीय इतिहास में अत्यंत संक्षिप्त अवधियों को छोड़कर ऐसी परिस्थितियाँ प्राय: नहीं रही. भारतीय मध्ययुग अंधकार युग नहीं रहा है. स्वयं यूरोपीय विद्वान इसे स्वर्णयुग कहते हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर इसे 'निर्माणात्म्क युग' मानती हैं. डा. रामविलास शर्मा भी 'लोकजागरण' इसी युग में दिखाते हैं. स्वयं हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल से मध्ययुगीनता की इस विशेषता का अंतर्विरोध देखकर ही 'हिन्दी साहित्य' (1952) में से मध्यकाल नाम हटा दिया है.
'कुंठित और स्तब्ध मनोवृत्ति',
'ब्राह्मण धर्मानुमोदित व्यवस्था',
'पुराणों में आस्था'
'भविष्य को अंधकारमय समझने की प्रवृत्ति'
'अतीत को आदर्श मानना'
'अनुकरण प्रधान साहित्य'
'अतिशय अलंकरण प्रियता'.
इसीलिए भारत के संदर्भ में मध्यकालीनता पूरे युग की अभिव्यक्ति नहीं, एक विशिष्ट अनैतिहासिक बोध है जो विभिन्न कारणों से प्राचीन काल में भी थी, मध्यकाल में भी रही और आज भी दिख जाती है. देश-काल के दबाव से मात्रा, प्राधान्य अथवा वर्चस्व के साथ कुछ हदतक स्वरूप में अंतर दिख सकता है. नियतिवाद, भाग्यवाद, तंत्र-मंत्रवाद, भक्ति-धर्म और इनसे जुड़े कर्मकांडों का विकासात्मक अध्ययन किया जाए तो इसे आसानी से सिद्ध किया जा सकता है.
यह भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि नियतिवाद, भाग्यवाद आदि की परवशता-जन्य भाव युग का 'फेनोमेना' भले ही रहा हो लेकिन इसका सबसे अधिक असर सामान्यजनों पर ही पड़ा, शासक वर्ग पर नहीं. 'को नृप होहि हमे का हानी' जैसी बातें मंथरा 'दासी' कहती हैं. दशरथ और कैकयी ये अच्छी तरह जानते थे कि किसके राजा बनने से क्या फ़र्क पड़ता है. धर्मशास्त्रीय नियमों का उल्लंघन जितना शासक वर्ग ने किया है, आम जन के लिए यह असंभव था.
संक्षेप में कहा जाए तो, हर वह विचार व स्थिति मध्यकालीनता है जो मनुष्य के विकास और उसकी स्वतंत्रता को बाधित करता है. यह ईश्वर और धर्म केन्द्रित चिंतन व्यवस्था है जो मनुष्य की सार्थकता मोक्ष प्राप्त करने अथवा ब्रह्म में लीन हो जाने को मानता है. जब साहित्य, कला-संस्कृति, राजनीति का ऐजेंडा और इतिहास की गति का निर्धारण साधु-संन्यासी करें, जब व्यक्ति, समाज और राज्य के क्रिया-कलाप धर्म, धर्मशास्त्र और धर्माधिकारी तय करें, जब जीवन की सारी मूल्यवत्ता और सार्थकता धर्मशास्त्र अनुमोदित समाज व्यवस्था द्वारा निश्चित किए हुए नियमों से निर्धारित होने लगे तो इसे मध्यकालीन स्थिति कहा जाएगा. इसी आधार पर सूत्रित करें तो -
सामंती व्यवस्था, परलोक का विचार, ईश्वर की शक्ति का विश्वास, देववाणी में अभिव्यक्ति को महत्त्व देना, कालचक्र की धारणा मध्यकालीनता है.
अतीत की निरंतरता का बोध मध्यकालीन बोध है.
श्रद्धा मध्यकालीन मूल्य है.
धर्म और कुटुम्ब मध्यकालीन संस्था है.
संतोष मध्यकालीन भाव है.
संस्कार मध्यकालीन जीवन-पद्धति है.
भाग्य मध्यकालीन चेतना है.
अध्यात्म मध्यकालीन आश्रय है और
वर्ण मध्यकालीन संबंध है.
Tuesday, September 9, 2008
अलंकार क्या है
प्राचीन आचार्यों ने अलंकार के विषय में बड़े विस्तार से लिखा है. उसमें इतनी बारीकी और विस्तार है कि अलंकार का पूरा शास्त्र ही खड़ा हो गया है. अलंकार कविता के सौन्दर्य को बढ़ाने और उसे समझने में सहयोगी माने गए हैं. लेकिन कविता के अनुभव और अर्थ के सौन्दर्य को बढ़ाने के बजाए जब अलंकारों से केवल चमत्कार को उभारने की कोशिश की जाती है तब अलंकार भार बन जाते हैं. वे काव्यार्थ की क्षति भी करते हैं. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अलंकार के विषय में बहुत संतुलित ढंग से लिखा है. उसे नीचे उद्धृत किया जा रहा है:
अभिनव गुप्त का कथन है कि
इस प्रकार अलंकार, वर्णन शैली की विशेषता है.
कविता में भाषा की सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है. वस्तु या व्यापार की भावना चटकीली करने और भाव को अधिक उत्कर्ष पर पहुँचाने के लिए कभी –कभी वस्तु का आकार या गुण बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है, कभी उसके रूप रंग या गुण की भावना को उसी प्रकार के रूप रंग मिलाकर तीव्र करने के लिए समान रूप और धर्म वाली और-और वस्तुओं को सामने लाकर रखना पड़ता है. कभी-कभी बात को भी घुमा-फिरा कर कहना पड़ता है. इस तरह के भिन्न-भिन्न विधान और कथन के ढंग, अलंकार कहलाते हैं. कहीं-कहीं तो इनके बिना काम ही नहीं चल सकता. पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ये साधन हैं, साध्य नहीं. साध्य को भुला कर इन्हीं को साध्य मान लेने से कविता का रूप कभी-कभी इतना विकृत हो जाता है कि वह कविता ही नहीं रह जाती. पुरानी कविता में कहीं-कहीं इस बात के उदाहरण मिल जाते हैं.......जैसे शिखर की तरह उठे हुए मेघखण्ड के ऊपर उदित होते हुए चंद्रबिम्ब के संबंध में इस उक्ति से कि, 'मनहुँ क्रमेलकपीठ पै धर्-यो गोल घंटा लसत I' (मानो ऊँट की पीठ पर रखा हुआ घंटा सुशोभित हो रहा हो), दूर की सूझ चाहे प्रगट हो, पर प्रस्तुत सौन्दर्य की भावना की कुछ भी पुष्टि नहीं होती.
जिस प्रकार एक कुरूप स्त्री अलंकार लाद कर सुंदर नहीं हो सकती, उसी प्रकार प्रस्तुत वस्तु या तथ्य की रमणीयता के अभाव में अलंकारों का ढेर काव्य का सजीव स्वरूप नहीं खड़ा कर सकता……पहले से सुंदर अर्थ को ही अलंकार शोभित कर सकता है.
अभिनव गुप्त का कथन है कि
यदि शव को गहने पहना दिए जाएँ, या साधु सोने की छड़ी धारण कर ले तो वह सुंदर नहीं हो सकता. अर्थात् अलंकार सौन्दर्य की वृद्धि करता है, सुंदर की सृष्टि नहीं कर सकता.
अलंकार है क्या! सूक्ष्म दृष्टि वालों ने काव्यों के सुंदर-सुंदर स्थल चुने और उनकी रमणीयता के कारणों की खोज करने लगे. वर्णन शैली या कथन की पद्धति में ऐसे लोगों को जो-जो विशेषताएँ मालूम होती गईं, उनका वे नामकरण करते गए. कौन कह सकता है कि काव्यों में जितने रमणीय स्थल हैं, सब ढूँढ़ डाले गए, वर्णन की जितनी सुंदर प्रणालियाँ हैं सब निरूपित हो गईं.
इस प्रकार अलंकार, वर्णन शैली की विशेषता है.
रस निष्पत्ति और रसानुभूति का स्वरूप
रस के सभी अवयव जब एक-दूसरे के संबंध में गूँथ जाते हैं तो उस गुँथाव को रस प्रक्रिया कहते हैं. यानी रस तभी उत्पन्न होता है जब ये अवयव विशेष प्रक्रिया में सक्रिय हो उठते हैं. इसी प्रक्रिया को भरत का यह प्रसिद्ध सूत्र व्यक्त करता है:
अर्थात् विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी के संयोग से रस निष्पत्ति होती है.
रस की निष्पत्ति और उसका स्वरूप समझना बहुत कठिन है और उस पर विवाद भी बहुत हुआ है. उन बातों की चर्चा कहीं और की जाएगी. लेकिन रस की अनिर्वचनीयता का कुछ पता हमें अवश्य होना चाहिए. 'विभाव-अनुभाव आदि के योग से जो रस निष्पन्न होता है वह न तो विभाव ही है, न अनुभाव ही है, न संचारी-भाव ही है, न स्थायी भाव ही है, न इन सबका योगफल ही है और न इसके बिना रह ही सकता है. रस इन सब वस्तुओं से भिन्न है और फिर भी इन्हीं से निष्पन्न हुआ है. जो बात इस प्रसंग में विशेष रूप से लक्ष्य करने की है, वह यह है कि रस व्यंग्य होता है, वाच्य नहीं और रस निर्वैयक्तिक होता है.' रस के व्यंग्य होने का तात्पर्य है कि उसका कथन नहीं किया जा सकता, वह लावण्य या कांति की भाँति प्रतीयमान होता है. रस से निर्वैयक्तिक होने का अर्थ है कि वह व्यक्ति की संकीर्ण सीमाओं से परे होता है.
विभावानुभाव व्यभिचारीसंयोगाद् रस निष्पत्ति:
अर्थात् विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी के संयोग से रस निष्पत्ति होती है.
रस की निष्पत्ति और उसका स्वरूप समझना बहुत कठिन है और उस पर विवाद भी बहुत हुआ है. उन बातों की चर्चा कहीं और की जाएगी. लेकिन रस की अनिर्वचनीयता का कुछ पता हमें अवश्य होना चाहिए. 'विभाव-अनुभाव आदि के योग से जो रस निष्पन्न होता है वह न तो विभाव ही है, न अनुभाव ही है, न संचारी-भाव ही है, न स्थायी भाव ही है, न इन सबका योगफल ही है और न इसके बिना रह ही सकता है. रस इन सब वस्तुओं से भिन्न है और फिर भी इन्हीं से निष्पन्न हुआ है. जो बात इस प्रसंग में विशेष रूप से लक्ष्य करने की है, वह यह है कि रस व्यंग्य होता है, वाच्य नहीं और रस निर्वैयक्तिक होता है.' रस के व्यंग्य होने का तात्पर्य है कि उसका कथन नहीं किया जा सकता, वह लावण्य या कांति की भाँति प्रतीयमान होता है. रस से निर्वैयक्तिक होने का अर्थ है कि वह व्यक्ति की संकीर्ण सीमाओं से परे होता है.
रस के अवयव
रस स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से निर्मित या अभिव्यक्त होता है. इन्हीं को रस के चार अंग कहते हैं.
1. स्थायी भाव
'स्थायी भाव' के संबंध में इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि उसका निरूपण रस की दृष्टि से किया गया है. इसलिए 'स्थायी भाव' रस निरूपण में शास्त्रीय श्रेणी है. उसे जीवन का स्थायी भाव नहीं मानना चाहिए. रस सिद्धांत में 'स्थायी भाव' का मतलब 'प्रधान' भाव है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्थायी भाव की परिभाषा इस प्रकार की है:
प्रधान (प्रचलित प्रयोग के अनुसार स्थायी) भाव वही कहा जा सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचे.
तात्पर्य यह है कि अनुभाव और संचारी भाव रस दशा तक नहीं पहुँचते हैं. अनुभाव व संचारी किसी-न-किसी भाव को पुष्ट करते हैं और वही भाव पूर्ण रस दशा को प्राप्त करता है. रति, शोक, उत्साह आदि भाव जीवन में प्रधान या मुख्य होते हैं वे ही रस की अवस्था को प्राप्त करते हैं. शास्त्र में संचारी भावों की संख्या 33 बताई गई है किन्तु स्थायी भाव 8, 9 या 10 ही माने गए हैं. अर्थात् 8, 9 या 10 भाव अपनी प्रधानता के कारण स्थायी भाव माने जाते हैं अपने स्थायित्व (Permanance) के कारण नहीं.
स्थायी भाव की संख्या नौ बताई गई है, किन्तु इनकी संख्या आठ और दस भी मानी जाती है. उनके नाम हैं:
रति, ह्रास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद और वात्सल.
इन्हीं स्थायी भावों का विकास रस रूप में होता है. इसलिए रस की संख्या भी स्थायी भावों की संख्या के अनुसार होती है.
2. विभाव
“विभाव से अभिप्राय उस वस्तुओं और विषयों के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है.” अर्थात् भाव के जो कारण होते हैं उन्हें विभाव कहते हैं.
विभाव दो प्रकार के होते हैं:
आलंबन और उद्दीपन
क. आलंबन विभाव
भाव जिन वस्तुओं या विषयों पर आलंबित होकर उत्पन्न होते हैं उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं. जैसे नायक-नायिका.
आलंबन के दो भेद हैं: आश्रय और विषय.
आश्रय
जिस व्यक्ति के मन में रति आदि भाव उत्पन्न होते हैं उसे आश्रय कहते हैं.
विषय
जिस वस्तु या व्यक्ति के लिए आश्रय के मन में भाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं.
उदाहरण के लिए यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जागरित होता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय. उसी प्रकार यदि सीता के मन में राम के प्रति रति भाव उत्पन्न हो तो सीता आश्रय और राम विषय होंगे.
ख. उद्दीपन विभाव
आश्रय के मन में भाव को उद्दीप्त करने वाले विषय की बाहरी चेष्टाओं और वाह्य वातावरण को उद्दीपन विभाव कहते हैं.
जैसे दुष्यंत शिकार खेलता हुआ कण्व के आश्रम में जा निकलता है. वहाँ शकुन्तला को वह देखता है. शकुन्तला को देख कर दुष्यंत के मन में आकर्षण या रति भाव उत्पन्न होता है. उस समय शकुंतला की शारीरिक चेष्टाएँ दुष्यंत के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करती हैं. इस प्रकार शकुंतला की शारीरिक चेष्टाओं को उद्दीपन विभाव कहा जाएगा. वन प्रदेश का एकान्त वातावरण आदि दुष्यंत के रति भाव को और अधिक तीव्र करने में सहायक होगा. अत: उद्दीपन विभाव विषय की शारीरिक चेष्टा और अनुकूल वातावरण को कहते हैं.
3. अनुभाव
जहाँ विषय की बाहरी चेष्टाओं को उद्दीपन कहा जाता है वहाँ आश्रय के शरीर विकारों को अनुभाव कहते हैं. यानी अनुभाव हमेशा आश्रय से संबंधित होते हैं. अनुभावों को भी रस सिद्धांत में निश्चित कर दिया गया है. स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, विवर्णता, अश्रु और प्रलाप. ये आठ अनुभाव माने जाते हैं.
जैसे शकुंतला के प्रति रतिभाव के कारण दुष्यंत के शरीर में रोमांच, कम्प आदि चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं तो उन्हें अनुभाव कहा जाएगा.
4. संचारी भाव
मन के चंचल विकारों को संचारी भाव कहते हैं. संचारी भाव भी आश्रय के मन में उत्पन्न होते हैं. संचारी भावों को व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है. इसका पहला कारण यह है कि एक ही संचारी भाव कई रसों के साथ हो सकता है. दूसरा कारण यह है कि वह पानी के बुलबुले की तरह उठता और शांत होता रहता है. इसके विपरीत स्थायी भाव आदि से अंत तक बना रहता है और एक रस का एक ही स्थायी भाव होता है.
उदाहरण के लिए शकुंतला के प्रति रतिभाव के कारण शकुंतला को देख कर दुष्यंत के मन में मोह, हर्ष, आवेग आदि जो भाव उत्पन्न होंगे उन्हें संचारी भाव कहेंगे.
1. स्थायी भाव
'स्थायी भाव' के संबंध में इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि उसका निरूपण रस की दृष्टि से किया गया है. इसलिए 'स्थायी भाव' रस निरूपण में शास्त्रीय श्रेणी है. उसे जीवन का स्थायी भाव नहीं मानना चाहिए. रस सिद्धांत में 'स्थायी भाव' का मतलब 'प्रधान' भाव है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्थायी भाव की परिभाषा इस प्रकार की है:
प्रधान (प्रचलित प्रयोग के अनुसार स्थायी) भाव वही कहा जा सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचे.
तात्पर्य यह है कि अनुभाव और संचारी भाव रस दशा तक नहीं पहुँचते हैं. अनुभाव व संचारी किसी-न-किसी भाव को पुष्ट करते हैं और वही भाव पूर्ण रस दशा को प्राप्त करता है. रति, शोक, उत्साह आदि भाव जीवन में प्रधान या मुख्य होते हैं वे ही रस की अवस्था को प्राप्त करते हैं. शास्त्र में संचारी भावों की संख्या 33 बताई गई है किन्तु स्थायी भाव 8, 9 या 10 ही माने गए हैं. अर्थात् 8, 9 या 10 भाव अपनी प्रधानता के कारण स्थायी भाव माने जाते हैं अपने स्थायित्व (Permanance) के कारण नहीं.
स्थायी भाव की संख्या नौ बताई गई है, किन्तु इनकी संख्या आठ और दस भी मानी जाती है. उनके नाम हैं:
रति, ह्रास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद और वात्सल.
इन्हीं स्थायी भावों का विकास रस रूप में होता है. इसलिए रस की संख्या भी स्थायी भावों की संख्या के अनुसार होती है.
2. विभाव
“विभाव से अभिप्राय उस वस्तुओं और विषयों के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है.” अर्थात् भाव के जो कारण होते हैं उन्हें विभाव कहते हैं.
विभाव दो प्रकार के होते हैं:
आलंबन और उद्दीपन
क. आलंबन विभाव
भाव जिन वस्तुओं या विषयों पर आलंबित होकर उत्पन्न होते हैं उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं. जैसे नायक-नायिका.
आलंबन के दो भेद हैं: आश्रय और विषय.
आश्रय
जिस व्यक्ति के मन में रति आदि भाव उत्पन्न होते हैं उसे आश्रय कहते हैं.
विषय
जिस वस्तु या व्यक्ति के लिए आश्रय के मन में भाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं.
उदाहरण के लिए यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जागरित होता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय. उसी प्रकार यदि सीता के मन में राम के प्रति रति भाव उत्पन्न हो तो सीता आश्रय और राम विषय होंगे.
ख. उद्दीपन विभाव
आश्रय के मन में भाव को उद्दीप्त करने वाले विषय की बाहरी चेष्टाओं और वाह्य वातावरण को उद्दीपन विभाव कहते हैं.
जैसे दुष्यंत शिकार खेलता हुआ कण्व के आश्रम में जा निकलता है. वहाँ शकुन्तला को वह देखता है. शकुन्तला को देख कर दुष्यंत के मन में आकर्षण या रति भाव उत्पन्न होता है. उस समय शकुंतला की शारीरिक चेष्टाएँ दुष्यंत के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करती हैं. इस प्रकार शकुंतला की शारीरिक चेष्टाओं को उद्दीपन विभाव कहा जाएगा. वन प्रदेश का एकान्त वातावरण आदि दुष्यंत के रति भाव को और अधिक तीव्र करने में सहायक होगा. अत: उद्दीपन विभाव विषय की शारीरिक चेष्टा और अनुकूल वातावरण को कहते हैं.
3. अनुभाव
जहाँ विषय की बाहरी चेष्टाओं को उद्दीपन कहा जाता है वहाँ आश्रय के शरीर विकारों को अनुभाव कहते हैं. यानी अनुभाव हमेशा आश्रय से संबंधित होते हैं. अनुभावों को भी रस सिद्धांत में निश्चित कर दिया गया है. स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, विवर्णता, अश्रु और प्रलाप. ये आठ अनुभाव माने जाते हैं.
जैसे शकुंतला के प्रति रतिभाव के कारण दुष्यंत के शरीर में रोमांच, कम्प आदि चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं तो उन्हें अनुभाव कहा जाएगा.
4. संचारी भाव
मन के चंचल विकारों को संचारी भाव कहते हैं. संचारी भाव भी आश्रय के मन में उत्पन्न होते हैं. संचारी भावों को व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है. इसका पहला कारण यह है कि एक ही संचारी भाव कई रसों के साथ हो सकता है. दूसरा कारण यह है कि वह पानी के बुलबुले की तरह उठता और शांत होता रहता है. इसके विपरीत स्थायी भाव आदि से अंत तक बना रहता है और एक रस का एक ही स्थायी भाव होता है.
उदाहरण के लिए शकुंतला के प्रति रतिभाव के कारण शकुंतला को देख कर दुष्यंत के मन में मोह, हर्ष, आवेग आदि जो भाव उत्पन्न होंगे उन्हें संचारी भाव कहेंगे.
रस क्या है
भारतीय काव्यशास्त्र में रस की धारणा को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है. संसार का कोई भी ऐसा काव्य सिद्धांत नहीं है जो किसी-न-किसी रूप में काव्य के आनंद को स्वीकार न करता हो. काव्य पढ़ने या नाटक देखने से जो विशेष प्रकार का आनंद प्राप्त होता है उसे रस कहा गया है. काव्य का रस साधारण जीवन में प्राप्त होने वाले आनंद से भिन्न माना गया है, लेकिन वह इतना भिन्न नहीं होता कि जीवन से कटी हुई कोई बिल्कुल निराली चीज़ हो. जीवन और काव्य के अनुभव और आनंद की भिन्नता को समझ लेना चाहिए.
काव्य की अनुभूति और आनंद व्यक्तिगत संकीर्णता से मुक्त होता है. इसी अर्थ में वह भिन्न होता है. उदाहरण के लिए यदि हमें या हमारे किसी संबंधी को सुख-दुख होता है तो हम सुखी-दुखी होते है।. लेकिन जब हम मनुष्य मात्र के सुख-दुख से सुखी-दुखी होते हैं तब वह अनुभव व्यक्तिगत संकीर्णता से मुक्त होता है. ऐसे अनुभव और इस संकीर्णता से मुक्त अनुभव को पं. रामचंद्र शुक्ल ने हृदय की मुक्तावस्था कहा है. हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा है. इसे प्राप्त करने की साधना भावयोग है. जिस प्रकार योग से चित्त का संस्कार होता है उसी प्रकार काव्य से भाव का. इस भावयोग में स्थायी भाव के साथ विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का योग होता है. संस्कृत काव्य-शास्त्र में इसी को रस कहा गया है. इस प्रक्रिया के कारण जीवन की व्यक्तिगत अनुभव और आनंद मनुष्य मात्र का अनुभव और आनंद बन जाता है. इससे स्पष्ट हुआ कि काव्य का अनुभव और आनंद जीवन के अनुभव और आनंद से मूलत: भिन्न नहीं है. काव्य की विशेष प्रक्रिया के कारण उसमें कुछ भिन्नता आ जाती है.
काव्य की अनुभूति और आनंद व्यक्तिगत संकीर्णता से मुक्त होता है. इसी अर्थ में वह भिन्न होता है. उदाहरण के लिए यदि हमें या हमारे किसी संबंधी को सुख-दुख होता है तो हम सुखी-दुखी होते है।. लेकिन जब हम मनुष्य मात्र के सुख-दुख से सुखी-दुखी होते हैं तब वह अनुभव व्यक्तिगत संकीर्णता से मुक्त होता है. ऐसे अनुभव और इस संकीर्णता से मुक्त अनुभव को पं. रामचंद्र शुक्ल ने हृदय की मुक्तावस्था कहा है. हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा है. इसे प्राप्त करने की साधना भावयोग है. जिस प्रकार योग से चित्त का संस्कार होता है उसी प्रकार काव्य से भाव का. इस भावयोग में स्थायी भाव के साथ विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का योग होता है. संस्कृत काव्य-शास्त्र में इसी को रस कहा गया है. इस प्रक्रिया के कारण जीवन की व्यक्तिगत अनुभव और आनंद मनुष्य मात्र का अनुभव और आनंद बन जाता है. इससे स्पष्ट हुआ कि काव्य का अनुभव और आनंद जीवन के अनुभव और आनंद से मूलत: भिन्न नहीं है. काव्य की विशेष प्रक्रिया के कारण उसमें कुछ भिन्नता आ जाती है.
Thursday, September 4, 2008
रचनाकारगत आलोचना
* कबीर विशेषांक
* तुलसीदास की प्रासंगिकता
* तुलसी का लोकमंगल
* कवि भूषण की रचनाधर्मिता
* प्रेमचंद की कहानियों की प्रासंगिकता
* प्रेमचंद और दलित-प्रसंग
* सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
* निराला : सही अध्ययन दृष्टि
* महादेवी का सर्जन : प्रतिरोध और करुणा
* नागार्जुन : एक आत्मीय रचनाकार
* नागार्जुन के काव्य की भावभूमि और भाषा
* कवि केदारनाथ अग्रवाल की राजनीतिक दृष्टि
* दिनकर की काव्यचेतना: पूनर्मूल्यांकन
* वर्तमान की पहचान समझ और संवेदना (हरिशंकर परसाई के संदर्भ में)
* बद्रीनारायण: कठिन समय का कविकर्म
* कात्यायनी की कविता पर एक सृजन-दृष्टि
Wednesday, September 3, 2008
चंद पंक्तियाँ
यह धरती है उस किसान की
जो बैलों के कंधों पर
बरसात घाम में
जुआ भाग्य का रख देता है,
खून चाटती हुई वायु में
पैनी कुसी खेत के भीतर
दूर कलेजे तक ले जाकर
जोत डालता है मिट्टी को.
________केदारनाथ अग्रवाल
******
कविता में कहने की आदत नहीं
पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता
स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को
जन को.
___________ मुक्तिबोध
जो बैलों के कंधों पर
बरसात घाम में
जुआ भाग्य का रख देता है,
खून चाटती हुई वायु में
पैनी कुसी खेत के भीतर
दूर कलेजे तक ले जाकर
जोत डालता है मिट्टी को.
________केदारनाथ अग्रवाल
******
कविता में कहने की आदत नहीं
पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता
स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को
जन को.
___________ मुक्तिबोध
व्यंग्य बाण
आदर्श चरित्र |
अश्वत्थामा बलिर्व्यास: हनूमांश्च विभीषण:
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:
खट्टर काका मुस्कुराकर बोले - इस श्लोक का असली तात्पर्य समझे? दरिद्र ब्राह्मण, मूर्ख राजा, खुशामदी पंडित, अंध भक्त, कृतघ्न भाई, दंभी आचार्य एवं क्रोधी विप्र -- से सातों चरित्र इस भूमि पर सदा विद्यमान रहेंगे. यह देश का दुर्भाग्य समझो.
#हरिमोहन झा कृत खट्टर काका का एक अंश
******
पवित्रता का दौरा |
#हरिशंकर परसाई कृत पवित्रता का दौरा का एक अंश
******
आलस्य |
# गुलाबराय, आलस्य भक्त का अंश
******
गांधी जी का चरखा |
# नामवर सिंह, बापू की विरासत का अंश
शब्द पथ
> लेखक के चित्त में कल्पना अथवा विचार एक प्रकार की धारा है, जो वाणी के द्वारा वेग के साथ बह निकलती है. 'कल्पना' और 'विचार' उसके अंत:करण के निवासी हैं जो शब्दों के रूप में परिवर्तित होकर, जैसे भाप जल के रूप में परिवर्तित हो जाता है, उसके मुख से निकल पड़ते हैं और उसके चित्त को एक तरह से हल्का कर देते हैं. उसके चित्त की अवस्था और प्रवृत्ति, उसका आंतरिक स्वभाव सौन्दर्य, तथा उसके विवेचन की सूक्ष्मता और शक्ति इत्यादि उसकी भाषा में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं.
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> शब्द सार्थक होते हैं कर्म से. साथ ही अपने शब्दों को कर्म से सार्थक बनाने वाले रचनाकार दुर्लभ होते हैं. इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि शब्द को कर्म से सार्थक बनाने वाला रचनाकार उत्कृष्ट साहित्य रचे.
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> मोहक गीत में कल्पनाओं को जगाने की बड़ी शक्ति होती है. वह मनुष्य को भौतिक संसार से उठाकर कल्पनालोक में पहुँचा देता है.
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> शब्द सार्थक होते हैं कर्म से. साथ ही अपने शब्दों को कर्म से सार्थक बनाने वाले रचनाकार दुर्लभ होते हैं. इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि शब्द को कर्म से सार्थक बनाने वाला रचनाकार उत्कृष्ट साहित्य रचे.
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> मोहक गीत में कल्पनाओं को जगाने की बड़ी शक्ति होती है. वह मनुष्य को भौतिक संसार से उठाकर कल्पनालोक में पहुँचा देता है.
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